नारायण मंत्र का प्रभाव–

आरुणि नामक प्रसिद्ध एक महान तपस्वी देविका नदी के तट पर आश्रम बनाकर घने वन में उपवास रखकर तपस्या करने लगे. एक दिन वह नदी में नहा रहे थे.

डुबकी लगाकर जैसे ही ऊपर आये तो उन्हें सामने एक शिकारी दिखा जिसने धनुष पर बाण चढ़ाकर उनकी ओर बाण साध रखा था. वह भयभीत हो गए और घबराहट में नदी से बाहर निकलने की बजाय वहीं खड़े रहे.

लेकिन अगले ही क्षण जो शिकारी उन्हें मारने को उतारू था उसने धनुष और बाण अपने हाथों से गिरा दिये तथा घुटनों के बल बैठकर आरूणि से कुछ निवेदन करने लगा.

शिकारी बोला- हे ब्राह्मण मैं अपने सामने आने वाले हर जीव को चाहे वह पशु हो या मनुष्य मार देता हूं. आपको भी मारने के विचार से ही आया था. पर आपको देखते ही मेरी हत्या की लालसा चली गई.

मुझे अपने पापों का बोध हो रहा है. मेरा जीवन सदा पाप में बीता है. मैंने हजारों हत्याएं की हैं लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि अपने शिकार को देखकर मेरी यह हालत हो जाये.

आरुणि के मुख से कोई शब्द नहीं निकला. वह अचरज के साथ शिकारी को देखते रहे. शिकारी ने उन्हें चुप देखकर आगे कहा- इतने ब्राह्मणों की हत्या करने का पापी, मैं किस नरक में जाउंगा मुझे नहीं पता.

आप तपस्वी जान पड़ते हैं. मेरे पाप कैसे कटेंगे, कृपया उपदेश दे कर मेरा उद्धार करें. आपके साथ मैं भी तप करना चाहता हूँ. अपने साथ अपनी शरण में लें. उस दिन से शिकारी उनके पास ही ठहर गया.

वह आश्रम के बाहर पेड़ के नीचे रहता और नदी में उसी प्रकार स्नान कर तप जाप करता जैसे कि आरुणि किया करते थे. इस तरह दोनों का धार्मिक कार्य चलने लगा.

कुछ दिन बीत गये, एक दिन की बात है. आरुणि स्नान करने नदी में गये ही थे कि उधर कोई भूखा बाघ आ निकला. उसने शांतस्वरुप मुनि को देखा तो सहज शिकार समझ उन पर झपटा.

उधर शिकारी ने भी बाघ को देख लिया था. उसने झट तीर चलाया और बाघ को मार गिराया. मरने पर उस बाघ के शरीर से एक पुरुष निकला और वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.

असल में जिस समय बाघ आरुणि पर झपटा था, उस समय आरुणि की निगाह बाघ पर पड़ गई. मारे घबराहट के मुनि के मुख से अनायास ही ऊं नमो नारायणाय का मंत्र निकल गया.

बाघ के प्राण तब तक उसके कंठ में ही थे, उसने यह मंत्र सुन लिया. प्राण निकलते समय केवल इस मंत्र मात्र को सुन लेने से वह बाघ एक दिव्य पुरुष के रूप में बदल गया था.

हाथ जोड़े हुये उस पुरुष ने आरुणि से कहा- हे ब्राह्मण, आपकी कृपा से मेरे सारे पाप धुल गये. अब मैं श्राप से मुक्त हो गया. अब तो मैं वहां चला जहां भगवान विष्णु विराजमान हैं.

आरुणि ने उस पुरुष से कहा- तनिक रुको नर श्रेष्ठ, तुम कौन हो ? तुम बाघ से मनुष्य कैसे बन गये. मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने के बाद तुम जहां चाहे जा सकते हो.

वह बोला- महाराज, इससे पहले के जन्म में मैं दीर्घबाहु नाम से प्रसिद्ध एक राजा था. वेद, वेदांग और बहुत से धर्मग्रंथ मैंने कंठस्थ कर लिए थे. इस घमंड में वेदपाठी ब्राह्मणों का मैं खूब अपमान किया करता था.

मेरे इस व्यवहार से सभी ब्राह्मण बहुत नाराज हो गये. एक बार ब्राह्मणों ने मिलकर मुझे श्राप दे दिया कि तू सबका इतनी निर्दयता से अपमान करता है इसलिए जा तू निर्दयी बाघ बनेगा.

हे मूर्ख, तूने बहुत कुछ पढ लिया है. तू सब कुछ भूल जा. अब तो नारायण का नाम मृत्यु के समय ही तेरे कानों में पड़ेगा.

श्राप सुनकर मैं उनके पैरों पर गिर पड़ा. मेरे बहुत गिड़गिड़ाने पर वे पसीजे और मेरे उद्धार की बात बताई.

उन्होंने कहा- हर छठे दिन जो कोई भी तुम्हें दोपहर में मिले वही तुम्हारा आहार होगा. शिकार करते समय जब तुम किसी ऋषि पर हमला करेगा और उसके मुंह से ऊं नमो नारायणाय का मंत्र तेरे कानों में पड़ेगा तब मुक्ति मिल जायेगी.

ब्राह्मणों का कहा आज यह सत्य हो गया. यह कहकर वह बाघ बना हुआ दिव्य पुरुष स्वर्ग को चला गया. उधर आरुणि बाघ के पंजे से छूट कर संयत हो चुके थे.

चूंकि शिकारी ने आरुणि के प्राणों की रक्षा की थी इसलिए आरुणि ने उससे कहा – हे शिकारी संकट के समय तुमने मेरी रक्षा की है. वत्स मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, वर मांगो.

शिकारी ने कहा- आप साक्षात चलते-फिरते देवता हैं. मेरे लिए यही वर काफी है कि आप मुझसे प्रेमपूर्वक बात कर रहे हैं मुझे और कुछ नहीं चाहिए.

प्रसन्न होकर आरुणि ने कहा- पहले तुम पापी थे पर अब तुम्हारा मन पवित्र हो गया है. देविका नदी में स्नान करने तथा भगवान विष्णु का नाम सुनने से तुम्हारे पाप नष्ट हो गये हैं. तुम यहीं रह कर तपस्या करो.

शिकारी बोला– मेरी भी यही इच्छा थी. आपने जिन भगवान नारायण की चर्चा की है उन्हें मेरे जैसा मानव कैसे पा सकता है यह बता दें तो यही मेरा वर होगा.

आरुणि ने कहा- झूठ मत बोलना और नारायण में अपना मन लगाये रखना. इस तरह तपस्वी बनकर ऊं नमो नारायणाय का जप करने से भगवान विष्णु को पा सकते हो. यह कह कर वरदाता आरुणी वहां से चले गये.
ओम नमो नारायणाय।

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