आत्मा एक है

मनुष्य की आत्मा तो एक है, लेकिन उसके मन अनेक हैं।
और मनुष्य की परम स्थिति तो एक है,
लेकिन उसकी बीच की स्थितियां भिन्न-भिन्न हैं।
मनुष्य आत्यंतिक रूप से तो समान है, लेकिन !
अलग-अलग स्थितियों में बहुत असमान है।
मनुष्य का विभाजन जो भारतीय बुद्धि ने किया है,
वह पहला विभाजन है स्त्री और पुरुष में।
लेकिन ध्यान रहे, स्त्री से अर्थ है स्त्रैण। स्त्री से अर्थ स्त्री ही हो,
तो यह वचन बहुत बेहूदा है। स्त्री से अर्थ है स्त्रैण।
और जब मैं कहता हूं स्त्री से अर्थ है स्त्रैण,
तो उसका अर्थ यह है कि पुरुषों में भी ऐसे व्यक्ति हैं,
जो स्त्री जैसे हैं, स्त्रैण हैं; स्त्रियों में भी ऐसे व्यक्तित्व हैं,
जो पुरुष जैसे हैं, पौरुषेय हैं। पुरुष और स्त्री प्रतीक हैं,
सिंबालिक हैं। उनके अर्थ को हम ठीक से समझ लें।
गुह्य विज्ञान में, आत्मा की खोज में जौ चल रहे हैं,
उनके लिए स्त्रैण से अर्थ है ऐसा व्यक्तित्व, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है;
जो प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन यात्रा नहीं कर सकता, जो राह देख सकता है, लेकिन खोज नहीं कर सकता। इसे स्त्रैण कहने का कारण है।
स्त्री और पुरुष का जो संबंध है, उसमें खोज पुरुष करता है,
स्त्री केवल प्रतीक्षा करती है। पहल भी पुरुष करता है, स्त्री केवल बाट जोहती है। प्रेम में भी स्त्री प्रतीक्षा करती है, राह देखती है। और अगर कभी कोई स्त्री प्रेम में पहल करे, इनिशिएटिव ले, तो आक्रामक मालूम होगी, बेशर्म मालूम होगी।
और अगर पुरुष प्रतीक्षा करे, पहल न कर सके, तो स्त्रैण मालूम होगा।
लेकिन विगत पांच हजार वर्षों में, गीता के बाद, सिर्फ आधुनिक युग में कार्ल गुस्ताव कं ने स्त्री और पुरुष के इस मानसिक भेद को समझने की गहरी चेष्टा
की है। कं ने इधर इन बीस—पच्चीस पिछले वर्षों में एक अभूतपूर्व बात सिद्ध
की है, और वह यह कि कोई भी पुरुष पूरा पुरुष नहीं है और कोई भी स्त्री पूरी स्त्री नहीं है। और हमारा अब तक जो खयाल रहा है कि हर व्यक्ति एक सेक्स
से संबंधित है, वह गलत है। प्रत्येक व्यक्ति बाइ—सेक्यूअल है, दोनों यौन प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद हैं। जिसे हम पुरुष कहते हैं, उसमें पुरुष यौन की मात्रा अधिक है, स्त्री यौन की मात्रा कम है। ऐसा समझें कि वह साठ प्रतिशत पुरुष है और चालीस प्रतिशत स्त्री है। जिसे हम स्त्री कहते हैं, वह साठ प्रतिशत स्त्री है और चालीस प्रतिशत पुरुष है।
लेकिन ऐसा कोई भी पुरुष खोजना संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत पुरुष हो;
और ऐसी कोई स्त्री खोजनी संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत स्त्री हो। यह है भी उचित। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का जन्म स्त्री और पुरुष से मिलकर होता है। इसलिए दोनों ही उसके भीतर प्रवेश कर जाते हैं। चाहे स्त्री का जन्म हो,
चाहे पुरुष का जन्म हो, दोनों के जन्म के लिए स्त्री और पुरुष का मिलन
अनिवार्य है! और स्त्री—पुरुष दोनों के ही कणों से मिलकर, जीवाणुओं से
मिलकर व्यक्ति का जन्म होता है। दोनों प्रवेश कर जाते हैं। जो फर्क है,
वह मात्रा का होता है। जो फर्क है, वह निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ऊपर से पुरुष दिखाई पड़ता है,
उसके भीतर भी कुछ प्रतिशत मात्रा स्त्री की छिपी होती है;
जो स्त्री दिखाई पड़ती है, उसके भीतर भी कुछ मात्रा पुरुष की छिपी होती है। और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार करे और किन्हीं क्षणों में पुरुष स्त्री जैसा व्यवहार करे। ऐसा भी हो सकता है
कि किन्हीं क्षणों में जो भीतर है, वह ऊपर आ जाए; और जो ऊपर है,
नीचे चला जाए।
स्त्रैण से अर्थ है, ऐसा मन, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है;
ज्यादा से ज्यादा समर्पण कर सकता है, ग्राहक मन, रिसेप्टिविटी,
द्वार खोलकर प्रतीक्षा कर सकता है।
अगर हम स्त्री के मन को ठीक से समझें, तो वह किसी ऐसे प्रतीक में प्रकट होगा, द्वार खोलकर दरवाजे पर बैठी हुई, किसी की प्रतीक्षा में रत; खोज में चली गई नहीं, प्रतीक्षा में। और पुरुष अगर दरवाजा खोलकर और किसी की प्रतीक्षा
करते दीवाल से टिककर बैठा हो, तो हमें शक होगा कि वह पुरुष कम है।
उसे खोज पर जाना चाहिए।
जिसकी प्रतीक्षा है, उसे खोजना पड़ेगा, यह पुरुष चित्त का लक्षण है।
जिसकी खोज है, उसकी प्रतीक्षा करनी होगी, यह स्त्री चित्त का लक्षण है।
स्त्री और पुरुष से इसका कोई संबंध नह बात तो बहुत जोरदार कही है आपने सभी सयाने ऐसा ही तो कहते आये हैं सुमीत सिंह जी और आज जो कश्मीरी पंडितों का हाल है वह इसी सयानेपन का परिणाम है ! पर मेरा अपना पचपन वर्ष का तज़ुरबा कुछ और कहता है ! हाँ सौ में से दो चार मुसलमान जरूर ऐसे होते हैं जो बहुत सज्जन ईमानदार और बातचीत में बड़े उदार होते हैं लेकिन जब मौक़ा आता है तो ये भी उन्हीं का समर्थन करते हैं जो पूरी दुनिया में इस्लामी क़ानून लाना चाहते हैं ! क्योंकि अगर ये आपका साथ देते हैं तो इनको भी काफिर समझकर मारा जायेगा ! और सभी को अपनी जान प्यारी है ! उस वक़्त दोस्ती और ईमानदारी की बातों की कोई अहमियत नहीं रहती ! मेरा तो बरसों से इन्हीं से पाला पड़ा है आपको अभी अनुभव से गुजरना हो तो कैराना में या बांग्लादेश में या जिस इलाक़े में मुसलमानों की आबादी ज़्यादा हो वहाँ अपनी माँ बहन और बेटियों के साथ मकान लेकर इनके बीच कुछ वर्षों तक रहिये तब पता चलेगा असलियत का ! महात्मा गाँधी ने बहुत दोस्ती बढ़ाई मोहम्मदअली जिन्ना के साथ तो पाकिस्तान देना पड़ा गाँधी जी तो और भी बहुत कुछ देने को तैयार हो गये थे वह तो फ़ौरन नाथूराम गोडसे ने क़िस्सा ख़तम किया नहीं तो ? दोस्ती की बात उसीसे की जानी चाहिये जो दोस्ती की क़दर करना जानता हो ! शायद आपने इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा हो तो फेसबुक पर “तुफैल चतुर्वेदी” जी Tufail Chaturvedi और Joy Krishna Das “जायकृष्ण दास” की पोस्टजरूर पढ़िये ! बहुत से अनपढ़ और पढ़े लिखे गँवार ऐसी ही उधार सुनी सुनाई हुई बातें करते हैं कि सभी धर्म या मजहब प्रेम शांति की बातें सिखाते हैं यह बात सरासर झूठ है बिना अध्ययन किए लोग जीवन भर इसी ग़लतफ़हमी का शिकार रहते हुए अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझे रहते हैं !
तीसरा प्रश्न :
कभी कभी मन व्यथित होकर ये प्रश्न पूछता ही चला जाता है….आखिर जब प्रकृति सब संभालती है तो इतनी हिंसा किसकी मौन सहमति से होती है….!!!!!!!!
क्या इस विश्व में दो शक्तियां है जो आपस में वर्चस्व की लड़ाई में मानवता की बलि लेती ही रहती हैं
सदियों से….?!?!?

अमृतो वीतमानो संजय जी
प्रेम प्रणाम
निर्माण और विध्वंस यह तो एक ही शक्ति के दो रूप हैं प्रकृति में कार्य कारण के अंतर्गत इस शक्ति का उपयोग प्रति पल हो रहा है ! गति के कारण कुछ बनता और मिटता रहता है ! फिर भी मनुष्य चाहे तो हिंसा की मात्रा न्यूनतम और अधिकतम कर सकता है ! एकदम अहिंसक होकर जीने के लिए तो महावीर जैसा नग्न होकर ही जिया जा सकता है ! लेकिन ऐसा जीवन जीना आज के समाज में संभव नहीं है कई जैन मुनि हैं लेकिन उनकी रक्षा के लिए बहुत से परिवारों की सतत ज़रूरत पड़ती है ! और उनमें अब तक एक भी महावीर की ऊँचाई को उपलब्ध होता हुआ नहीं दिखाई दिया ! न महावीर जैसी प्रतिभा है न सौन्दर्य है न वह अभय न वीतरागता न वैसा अप्रमाद मुझे किसी में दिखाई दिया ! बस एक परंपरा का निर्वाह हो रहा है । प्रकृति ही सब संभाल रही है लेकिन मनुष्यों ने प्रकृति में बहुत हस्तक्षेप किया है हजारों वर्षों से और दिन ब दिन हम हमारी ही क़ब्र खोदने में लगे हुए हैं ! हर एक देश हथियारों को बढ़ाता जा रहा है ! जंगल काटे जा रहे हैं समंदर और नदियों का पानी विषाक्त हो रहा है निर्दोष पशुओं को बेरहमी से काटा जा रहा है धर्म के नाम पर जिहाद करने पर लोग तुले हैं ! मुल्क और मजहब के अंधविश्वास ने लोगों की अक़्ल पर पर्दा डाल रखा है ! कोई परमात्मा या अल्लाह जैसा कहीं मौन होकर बैठा हुआ नहीं है यह सब हमारी कल्पनाओं, मान्यताओं और अफ़वाहों का जाल है ! बलवान आदमी ही निर्बल की बली चढ़ाता आ रहा है वह देश धर्म और न मालूम क्या क्या बहाने बनाता है अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए !
चौथा प्रश्न:
ChandraMohan Saklani
नग्नता तथा काम वासना तृप्ति की भूख नर्क का मार्ग है !
प्रिय चन्द्रमोहन जी
प्रेम प्रणाम

स्वामी अशोक चैतन्य:
#च्वांग्त्सू ने कहा–

क्या तुमने उस पक्षी के संबंध में सुना है
जो दक्षिण दिशा में रहता है?
वह फिनिक्स एक पौराणिक पक्षी है,
जो कभी बुढ़ाता नहीं, वह शाश्वत है।

चीन की यह काल्पनिक कथा बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण है। कल्पित कथा सत्य नहीं होती, लेकिन यह किसी सत्य से भी बढ़कर सत्य है। कल्पित कथा एक बोध कथा होती है, जो किसी विशेष चीज को दर्शाती है, जिसे किसी और तरीके से नहीं बतलाया जा सकता। केवल बोध कथा के द्वारा या किसी काव्य के द्वारा उसे अभिव्यक्त किया जा सकता है। कल्पित कथा एक काव्य ही है। यह कोई वर्णन नहीं। यह सत्य का दिग्दर्शन कराता है। यह बाहर के संसार की कोई घटना न होकर आंतरिक संसार से संबंधित है।

क्या तुमने उस पक्षी के संबंध में सुना है?
जो दक्षिण दिशा में रहता है

चीन के लिए भारत दक्षिण में है और यह पक्षी भारत में ही रहता है। यह कहा जाता है कि जब लाओत्से बुद्ध हुआ तो वह चीन से दक्षिण भारत की ओर गया था। वे नहीं जानते कि उसकी कब मृत्यु हुई। वह कभी मरा ही नहीं। ऐसे लोग कभी मरते ही नहीं। वे केवल दक्षिण दिशा में चले जाते हैं। वे भारत में जाकर ही अंर्तध्यान हो जाते हैं।

यह कहा जाता है कि बोधिधर्म चीन में दक्षिण से आया।
उसने ऐसा शिष्य खोजने के लिए ही भारत छोड़ा था, जिसे वह अपनी आंतरिक सम्पदा हस्तांतरित कर सके नौ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद वह उसे हस्तांतरित करने में समर्थ हुआ और यह कहा जाता है कि वह दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए गायब हुआ।

भारत, चीन के लिए दक्षिण दिशा में है। वास्तव में भारत ही सभी कल्पित बोध अथवा नीति कथाओं का स्त्रोत है। पूरे संसार की कोई भी नीति कथा ऐसी नहीं है जिसका जन्म भारत में न हुआ हो।

विज्ञान का जन्म युनान में हुआ और कल्पित कथाओं का जन्म भारती मन में। और संसार को देखने के दो ही रास्तें हैं; एक है विज्ञान और दूसरा है धर्म।

यदि तुम विज्ञान के द्वारा संसार को देखो तो तुम विश्लेषण के द्वारा गणित और तर्क शास्त्र के द्वारा देखोगे।

एथेंस के यूनानी मस्तिष्क ने संसार को विज्ञान दिया, जो सुकरात का विश्लेषण, तर्क और संदेह का तरीका है।

संसार को देखने का धर्म का पूरी तरह भिन्न दृष्टिकोण है।
यह तरीका है संसार को कल्पित नीति कथाओं, काव्य और प्रेम द्वारा देखने का। वास्तव में यह तरीका रूमानी है। यह तुम्हें तथ्य नहीं दे सकता, यह तुम्हें काल्पनिक कथाएं देगा। लेकिन मैं कहता हूं कि यह काल्पनिक कथाएं किसी तथ्य से भी अधिक तथ्यपरक हैं, क्योंकि आंतरिक केंद्र पर पहुंचा देती हैं। इनका संबंध बाहर की घटनाओं से नहीं है।

इसी कारण भारत के पास, इतिहास न होकर काल्पनिक बोध कथाएं और पुराण हैं। राम ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं। वह हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। कृष्ण भी पौराणिक पुरूष है। वह भी ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं। वह हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं।

लेकिन भारत इससे परेशान नहीं होता कि राम और कृष्ण ऐतिहासिक हैं अथवा नहीं। वे बहुत अर्थपूर्ण हैं। वे काव्य ही न होकर महाकाव्य हैं और इतिहास भारत के लिए अर्थहीन है, क्योंकि इतिहास में केवल वास्तविक तथ्य होते हैं, और उससे कभी आंतरिक केंद्र का आभास तक नहीं होता। हमारा संबंध सबसे आंतरिक केंद्र के साथ है, जो पहिए की धुरी होता है। चक्र निरंतर घूमता ही रहे–यह इतिहास है, लेकिन पहिए का केंद्र कभी घूमता ही नहीं, यह काल्पनिक कथा है।

🙏💐💞

एक बादशाह हुआ। उसका एक गुलाम था। गुलाम से उसे बड़ा प्रेम था, बड़ा लगाव था। वह बड़ा स्वामिभक्त था। एक दिन दोनों जंगल से गुजरते थे। एक वृक्ष में एक ही फल लगा था। सम्राट ने फल तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी, उसने एक कली काटी और गुलाम को दी। गुलाम ने चखी और उसने कहा, मालिक, एक कली और।
और गुलाम मांगता ही गया। फिर एक ही कली हाथ में बची। सम्राट ने कहा, इतना स्वादिष्ट है? गुलाम ने झपट्टा मार कर वह एक कली भी छीननी चाही।
सम्राट ने कहा, यह हद हो गई! मैंने तुझे पूरा फल दे दिया, और दूसरा फल भी नहीं है। और अगर इतना स्वादिष्ट है, तो कुछ मुझे भी चखने दे।
उस गुलाम ने कहा कि नहीं, स्वादिष्ट बहुत है और मुझे मेरे सुख से वंचित न करें, दे दें। लेकिन सम्राट ने चख ली। वह फल बिलकुल जहर था। मीठा होना तो दूर, उसके एक टुकड़े को लीलना मुश्किल था। सम्राट ने कहा, पागल! तू मुस्कुरा रहा है, और इस जहर को तू खा गया? तू ने कहा क्यों नहीं?
उस गुलाम ने कहा, जिन हाथों से इतने सुख मिले हों और जिन हाथों से इतने स्वादिष्ट फल चखे हों, एक कड़वे फल की शिकायत?
फलों का हिसाब ही छोड़ दिया, हाथ का हिसाब है।
जिस दिन तुम देख पाओगे कि परमात्मा के ही हाथ से दुख भी मिलता है, उस दिन तुम उसे दुख कैसे कहोगे? तुम उसे दुख कह पाते हो अभी, क्योंकि तुम हाथ को नहीं देख रहे हो। जिस दिन तुम देख पाओगे सुख भी उसका दुख भी उसका, सुख-दुख दोनों का रूप खो जाएगा। न सुख सुख जैसा लगेगा, न दुख दुख जैसा लगेगा। और जिस दिन सुख-दुख एक हो जाते हैं, उसी दिन आनंद की घटना घटती है। जब तुम्हें सुख-दुख का द्वैत नहीं रह जाता, तब अद्वैत उतरता है, तब आनंद उतरता है, तब तुम आनंदित हो जाओगे।
नहीं! किसी को, पड़ोस में, पति को, पत्नी को, मित्र को, भाई को, दोस्त को, दुश्मन को दोषी मत ठहराना। सब दोषों का मालिक वह है। और जब खुशी आए, सफलता मिले, तो अपने को, अपने अहंकार को मत भरना। सब सफलताओं, सब स्वादिष्ट फलों का मालिक भी वही है। अगर तुम सब उसी पर छोड़ दो, तो सब खो जाएगा। सिर्फ आनंद शेष रह जाता है।

सब घट मेरा साइयां सुना घट नही कोय,बलिहारी वा घट की,जा घट परघट होए।।

जय सियाराम जी।

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