श्रीभगवान जब कारागार में वसुदेव-देवकीजी के सामने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने कहा–‘देवि स्वायम्भुव मन्वन्तर में आपका नाम पृश्नि था वसुदेवजी सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों ने देवताओं के बारह हजार वर्षों तक कठिन तप करके मुझे प्रसन्न किया। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में निरन्तर मेरी भावना की थी, इसलिए मैं तुम्हें वर देने के लिए प्रकट हुआ। मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो सो मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा। उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से तुम दोनों का पुत्र हुआ।
फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे। तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप में फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ। मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिए दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। अन्यथा मेरे जन्म का ज्ञान किसी को नहीं होता। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव से स्नेह करना तथा निरन्तर ब्रह्मभाव से चिन्तन करना।’
इस प्रकार अनेक बातें बताकर उन्हें समझाया और माता देवकी के कहने से भगवान ने बालरूप धारण कर लिया।
वसुदेव-देवकीजी के बराबर कौन भाग्यवान् हो सकता है, जिन्हें वे अखिलब्रह्माण्डनायक सदा माता-पिता कहकर पुकारा करते थे।
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“जय श्री कृष्ण”
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