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उस ग्रंथ का नाम है,
विज्ञान भैरव तंत्र।
छोटी सी किताब है।
इससे छोटी किताब भी
दुनियां में खोजनी मुश्किल है।
कुछ एक सौ बारह सूत्र है।
हर सुत्र में एक ही बात है।
पहले सूत्र में जो बात कह दी है,
वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है..
एक ही बात,
और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
पार्वती पूछ रहीं है शिव से,
शांत कैसे हो जाऊँ?
आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊँ?
अमृत कैसे मिलेगा?
और दो-दो पंक्तियों में शिव उत्तर देते है।
दो पंक्तियों में वे कहते है,
बाहर जाती है श्वास,
भीतर जाती है श्वास।
दोनों के बीच में ठहर जा,
अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।
एक सूत्र पूरा हुआ।
बाहर जाती है श्वास,
भीतर आती है श्वास,
दोनों के बीच ठहरकर देख ले,
अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।
पार्वती कहती है,
समझ में नहीं आया।
कुछ और कहें।
शिव दो-दो में कहते चले जाते है।
हर बार पार्वती कहती है।
नहीं समझ में आया।
कुछ और कहें।
फिर दो पंक्तियां।
और हर पंक्ति का एक ही मतलब है,
दो के बीच ठहर जा।
हर पंक्ति का एक ही अर्थ है,
दो के बीच ठहर जा।
बाहर जाती श्वास,
अंदर जाती श्वास।
जन्म और मृत्यु,
यह रहा जन्म यह रही मृत्यु।
दोनों के बीच ठहर जा।
पार्वती कहती है,
समझ में कुछ आता नहीं।
कुछ और कहे।
एक सौ बारह बार।
पर एक ही बात
दो विरोधों के बीच में ठहर जा।
प्रतिकार- स्वीकार,
आसक्ति–विरक्ति,
ठहर जा- अमृत की उपलब्धि।
दो के बीच दो विपरीत के बीच
जो ठहर जाए वह गोल्डन मीन,
स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वहीं है।
और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है।
कोई कठिनाई नहीं है।
एक ही नियम है
कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना,
तटस्थ हो जाना।
सम्मान-अपमान,
ठहर जाओ— मुक्ति।
दुख-सुख, रूक जाओ..
प्रभु में प्रवेश।
मित्र-शत्रु, ठहर जाओ
सच्चिदानंद में गति।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना
ओर दो के बीच में तटस्थ हो जाना।
न इस तरफ झुकना,
न उस तरफ।
समस्त योग का सार इतना ही है।
दो के बीच में जो ठहर जाता,
वह जो दो के बाहर है,
उसको उपलब्ध हो जाता है।
द्वैत में जो तटस्थ हो जाता,
अद्वैत में गति कर जाता है।
द्वैत में ठहरी हुई चेतना
अद्वैत में प्रतिष्ठित हो जाती है।
द्वैत में भटकती चेतना,
अद्वैत में च्युत हो जाती है।
जय सच्चिदानंद जग पावन….
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