शिष्य की चंचलता और मृत्यु का सत्य-

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एक बार की बात है कि एक जंगल में एक महात्मा रहते थे । महात्माजी सुबह शाम अपने शिष्यों को पढ़ाते – लिखाते और बाकि समय आश्रम के कार्यों व अपने योगाभ्यास में व्यस्त रहते थे । खाने के लिए जंगल से कंदमूल शिष्य ले आते और नदी से पानी की व्यवस्था जुटा लेते । इस तरह महात्माजी का जीवन बड़ी ही सुख शांति और आनंद में कट रहा था ।

लेकिन महात्माजी का एक शिष्य श्वेतांक बड़ा ही चंचल स्वभाव का था । महात्माजी उसे अच्छे से जानते थे । जब तक किसी काम में लगा रहता वो शांत रहता है लेकिन जैसे ही बेकार हुआ । उसके मन में तरह – तरह के विचार आने लगते थे । वह हमेशा भक्ति को छोड़कर आसक्ति के पीछे भागने के सपने संजोता रहता था । आखिर एक दिन उसने अपने मन की माया को महात्माजी के आगे कह ही सुनायी ।
शिष्य बोला – “ गुरूजी ! आप दिनभर यहाँ एक जगह बैठे रहते है, आपका मन कैसे लगा रहता है । चलिए एक दिन नगर घूम आये । वहाँ बड़े – बड़े राजे महाराजे आपके शिष्य बनेंगे । बड़े – बड़े महलों में प्रसाद ग्रहण करने को मिलेगा ।”

शिष्य की मनोवांछा महात्माजी जान चुके थे । महात्माजी बोले – “ देख ! श्वेतांक मैं तो यही पर मस्त हूँ । लेकिन अगर तुझे जाना है नगर तो जा सकता है ।”

शिष्य बोला – “ गुरूजी ! अकेले जायेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा और हमें कोई जानता भी तो नहीं । आप साथ चलते तो बाजार भी घूम लेते और कुछ सामान भी खरीद लाते ।”

महात्माजी बोले – “ मुझे तो फुर्सत नहीं श्वेतांक ! तू जा घूमकर आ जाना, तुझे बाजार से जो चाहिए हो, मेरा नाम लेकर बोल देना ।”
श्वेतांक अकेला ही नगर को चल दिया । नगर में प्रवेश करते ही बड़ी – बड़ी अट्टालिकाए देखकर श्वेतांक अचम्भे से उन्हें देखने लगा । सबकुछ अच्छे से देख – देखकर वह आगे ही आगे बढ़ा जा रहा था । तभी उसकी दृष्टि मुस्कुराती हुई एक सुन्दर युवती पर पड़ी । श्वेतांक एक ब्रह्मचारी था । युवती को देखते ही कामदेव उसकी आँखों से प्रवेश करके ह्रदय में बैठ चूका था । युवती के विचारों ने कुकल्पनाओं को और अधिक हवा दे दी । श्वेतांक अब वासना की भूख को मिटाने के लिए छटपटाने लगा । वह अब योग – जप – तप सब भूल चूका था । कामदेव के आगे ब्रह्मचर्य की क्या मजाल ! श्वेतांक अब उस सुंदरी को पाना चाहता था ।

जब श्वेतांक उस युवती के महल के मुख्य द्वार पर पहुंचा तो उसकी सेविका बाहर आई और बोली – “ बोल ब्रह्मचारी ! क्या चाहिए ?”श्वेतांक बोला – “ मुझे उस सुन्दर युवती से मिलना है ।” असल में वह युवती एक गणिका थी ।

सेविका बोली – “ स्वामिनी ! एक बार मिलने के लिए १०० स्वर्ण मुद्राएँ लेती है । यदि इतनी तुम्हारी हैसियत हो तो बोलो ?”

तब श्वेतांक बोला – “जाकर अपनी स्वामिनी को बोल दो, मैं जंगल में रहने वाले महात्माजी का शिष्य हूँ ।”
महात्माजी का नाम सुनकर वह गणिका स्वयं बाहर आ गई और बोली – “ तुम मुझसे मिलने आये हो, क्या यह बात तुम्हारे गुरु को पता है ?”

श्वेतांक बोला – “नहीं ! मैं नगर घुमने आया था लेकिन मेरी दृष्टि अचानक आप पर पड़ गई और मुझे आपसे मिलने की इच्छा हुई ।”

गणिका बोली – “ हे ब्रह्मचारी ! मैं तुमसे १०० स्वर्ण मुद्राएँ नहीं लुंगी । लेकिन तुम्हे एक बार अपने गुरु को पूछकर आना होगा कि तुम मुझसे मिलना चाहते हो ।” गणिका को हाँ कहकर श्वेतांक वहाँ से चल दिया ।

संध्या को जब श्वेतांक आश्रम पहुंचा तो गुरूजी उसका चेहरा देखकर ही सारा मांजरा समझ गये । गुरूजी समझ चुके थे कि श्वेतांक काम से घायल हो चूका है । तभी श्वेतांक बोला – “ गुरूजी ! मुझे एक काम के लिए आपकी आज्ञा चाहिए ।”
गुरूजी पहले ही समझ चुके थे अतः बोले – “ तू तो उस सुंदरी का नाम बता, अभी यहाँ बुला देता हूँ ।” श्वेतांक अचानक से खुश हो गया और उसने झट से गणिका का नाम बता दिया । गुरूजी ने गणिका के नाम पत्र लिख भेजा ।

पत्र पाते ही गणिका गुरूजी की सेवा में हाजिर हो गई । वह उसको श्वेतांक के पास ले गये और बोले – “ ले ! ले आया इसको ! अब एक रात है तेरे पास, जो करना है कर ले लेकिन ध्यान रहे सुबह तेरी मृत्यु हो जाएगी ।”

गुरूजी गणिका को श्वेतांक के पास कुटिया में छोड़कर बाहर आकर सो गये । जब सुबह हुई तो महात्माजी कुटिया में गये तो देखा कि गणिका सो रही थी और श्वेतांक अब भी ज्यो का त्यों बैठा जाग रहा था ।
महात्माजी ने पूछा – “अरे श्वेतांक ! यूँ पत्थर की तरह क्यों बैठा है ? तेरी बड़ी इच्छा थी ना ।”

श्वेतांक गुरूजी को दण्डवत् प्रणाम करते हुए बोला – “माफ़ कीजिये गुरूजी किन्तु रातभर मैं मृत्यु के बारे में ही सोचता रहा इसलिए कुछ न कर सका ।” मृत्यु के डर से वासना का भूत छू मंतर हो गया ।

तब महात्माजी बोले – “ जब सुबह मृत्यु आएगी, यह जानकर तेरा रात्रि का आनंद गायब हो गया तो मुझे तो पता भी नहीं, मेरी मृत्यु कब आ जाये । ऐसे में मैं सांसारिक भोगों के पीछे कैसे भाग सकता हूँ । इसलिए मैं अपना सारा समय योगाभ्यास में लगाता हूँ ।”

शिष्य श्वेतांक को अब वास्तविकता समझ आ चुकी थी । अब वह भी पुरे मन से ज्ञानार्जन और योगाभ्यास में लग गया ।

एक बार की बात है कि एक जंगल में एक महात्मा रहते थे । महात्माजी सुबह शाम अपने शिष्यों को पढ़ाते – लिखाते और बाकि समय आश्रम के कार्यों व अपने योगाभ्यास में व्यस्त रहते थे । खाने के लिए जंगल से कंदमूल शिष्य ले आते और नदी से पानी की व्यवस्था जुटा लेते । इस तरह महात्माजी का जीवन बड़ी ही सुख शांति और आनंद में कट रहा था ।

शिक्षा – हर कार्य के लिए एक निश्चित समय होता है । इसलिए जो समय के साथ चलते है वही सुखी रहते है । विद्यार्थी का जीवन के तपस्वी का जीवन होना चाहिए । उसे सांसारिक भोग – वासनाओं से यथासंभव दूर ही रहकर ब्रह्मचर्य पूर्वक शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनना चाहिए ।

बोलो जय श्री राम !

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